बुधवार, 15 जुलाई 2009

रुद्र बीसी २००९ श्रावण मास


रूद्र बीसी में सावन मास में मिलती है
शांति और समृद्धि बढ़ाएगी शिव की आराधना
इस सावन सोमवार की शुरूआत के साथ ही रूद्र की बीसी अपने अंतिम चरण की ओर बढ़ रही है। सृष्टि के संचालन के लिए भगवान बह्मा, विष्णु और महेश के 20-20 वर्षों में से 2014 से बह्मा की बीसी शुरू होगी। ज्योतिषियों के अनुसार अपने अंतिम चरण में रूद्र की बीसी अधिक संहारकारक रहेगी। मौसम की खंडता, उपद्रता और वैश्विक अस्थिरता को इसी का प्रभाव माना जा रहा है। रूद्र की बीसी में सावन सोमवार का विशेष महत्व बताते हुए ज्योतिषाचार्य भगवान शिव की आराधना शांति और समृद्धि लाने वाली बताते हैं।

बीसी विश्वनाथ की, विषाद बड़ो वाराणसी।बूझिए न ऐसी गति, शंकर संहार की॥


महात्मा तुलसीदास की गीतावली में उल्लेखित इन पंक्तियों का अर्थ बताते हुए आचार्य पंडित शंकर उपाध्याय कहते हैं कि सृष्टि के संचालन के लिए भगवान उत्पत्तिकर्ता बह्मा, पालनकर्ता विष्णु और संहारक भगवान शंकर के लिए 20-20 वर्ष बाँटे गए हैं पूर्व में भगवान विष्णु की बीसी रही और वर्तमान में 1995 से शुरू हुई रूद्र की बीसी इन सावन सोमवारों से अंतिम चरण की ओर है जो कि अधिक संहारक है। अवर्षा की स्थिति, उपद्रव, प्राकृतिक आपदाएँ और अस्थिरता की स्थिति इसी के चलते निर्मित हो रही हैं।


कलि बारहई बार दुकाल पड़े। अन्न बिना बहु लोग मरे॥


रामचरित मानस की चौपाई का अर्थ बताते हुए पंडित जी कहते हैं कि कहीं पर अच्छी वर्षा तो कहीं अवर्षा और कहीं बाढ़ जैसी स्थितियाँ इसे ही 'दुकाल' कहा जाता है। शिव बीसी के पिछले वर्षों को देखे तो यही स्थिति लगातार बनी हुई है और अंतिम चरण में यह अधिक संहारक होगी। इस कोप को कम करने के लिए सावन माह में शिव की आराधना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि अन्य माहों में यह शक्ति नहीं होती। पार्थिव शिवपूजन विशेष रूप से दूध, दही, घी, शहद, शर्करा, चावल और पुष्प, गंगाजल से अभिषेक करना चाहिए। शिव यंत्र देखकर माहभर एक ही समय में निश्चित बेलपत्र एवं निश्चित अर्कपुष्प से अर्चना करने से मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। श्रावण मास के मंगलवार को अविवाहिता लड़कियों को मंगला गौरी का व्रत मनोकामना पूर्ण करने वाला रहेगा।

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

सनातन धर्म के संस्कार / रीति-रिवाज



सनातन धर्म के संस्कार / रीति-रिवाज
सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।
प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।
नामकरण के बाद चूडाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है।
विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।
गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है। दोष मार्जन के बाद मनुष्य के सुप्त गुणों की अभिवृद्धि के लिये ये संस्कार किये जाते हैं।
हमारे मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिये अपने अथक प्रयासों और शोधों के बल पर ये संस्कार स्थापित किये हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण भारतीय संस्कृति अद्वितीय है। हालांकि हाल के कुछ वर्षो में आपाधापी की जिंदगी और अतिव्यस्तता के कारण सनातन धर्मावलम्बी अब इन मूल्यों को भुलाने लगे हैं और इसके परिणाम भी चारित्रिक गिरावट, संवेदनहीनता, असामाजिकता और गुरुजनों की अवज्ञा या अनुशासनहीनता के रूप में हमारे सामने आने लगे हैं।
समय के अनुसार बदलाव जरूरी है लेकिन हमारे मनीषियों द्वारा स्थापित मूलभूत सिद्धांतों को नकारना कभीश्रेयस्कर नहीं होगा।

आरती क्यों और कैसे?

आरती क्यों और कैसे?

पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।
एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।
सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।
यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।
तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।
सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।
नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।
तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।

पंडित शंकर उपाध्याय

बुधवार, 8 जुलाई 2009

अक्षय पुण्यों का त्योहार है अक्षय तृतीया

अक्षय पुण्यों का त्योहार है अक्षय तृतीया

नई दिल्ली। किसी भी शुभ कर्म के लिए काफी पवित्र माने जाने वाले अक्षय तृतीया पर्व पर हिन्दू श्रद्धालु नए निवेश या दान आदि कर्म को फलदायक मानते हैं। मान्यता है कि इसी दिन त्रेतायुग की शुरुआत हुई थी और महर्षि वेद व्यास ने भी इसी दिन महाभारत लिखनी शुरू की थी। इस बार सोमवार को अक्षय तृतीया का त्योहार है और लोगों में इसको लेकर अभी से ही काफी उत्सुकता है।
धर्म विशेषज्ञों के अनुसार मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन किए जाने वाले कामों और दान का फल अक्षय रहता है अर्थात कभी नहीं मिटता। इसी कारण लोग इस दिन विभिन्न वस्तुओं का दान करते हैं। हिन्दू त्योहारों और वृक्षों के बारे में कई पुस्तकें लिख चुके लखनऊ के राधाकृष्ण दुबे के अनुसार अक्षय तृतीया पर्व वैशाख मास में शुक्ल पक्ष के तीसरे दिन पडता है।
दुबे ने कहा कि यह भी मान्यता है कि अक्षय तृतीया के दिन विष्णु भगवान के अवतार परशुराम का जन्म हुआ था। उन्होंने कहा कि पूरा वैशाख माह ही भगवान विष्णु से संबंधित माना जाता है। भगवान विष्णु को परोपकार बहुत प्रिय है, इसलिए श्रद्धालु पूरे वैशाख मास विशेषतौर पर अक्षय तृतीया के दिन दान करते हैं, जो परोपकार ही है।
उन्होंने कहा कि आजकल अक्षय तृतीया पर सोना, चांदी और आभूषण खरीदने का चलन शुरू हो गया है। इस चलन का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है। यह चलन त्योहारों के व्यवसायीकरण के अलावा और कुछ नहीं है।
श्री सनातन धर्म संस्था नेदरलैंड अध्यक्ष पंडित श्री सुरेन्द्र शंकर उपाध्याय के अनुसार अक्षय तृतीया पर्व चूंकि गर्मी के मौसम में पडता है इसलिए इस पर्व पर ऐसी चीजों के दान का महत्व अधिक है जो गर्मियों के अनुकूल हो। उन्होंने बताया कि इस पर्व पर लोग प्राय: मिट्टी के बने घडे, सुराही, मीठा शरबत, सत्तू,खरबूजा और हाथ के पंखे आदि दान करते हैं। उन्होंने कहा कि कुछ लोग इस दिन आंवले के वृक्ष के नीचे भोजन करना पवित्र मानते हैं।
पूज्य पंडित जी ने कहा कि इस दिन दान करने से हजार गुना फल मिलने की मान्यता है। संभवत:इसी मान्यता के चलते अक्षय तृतीया के दिन विवाह कराना पवित्र माना गया है। हिन्दू धर्म में विवाह को भी कन्या दान की संज्ञा दी जाती है। यही वजह है कि राजस्थान में बहुत से लोग इसी दिन विवाह करना पसंद करते हैं।

यस. जगलाल
श्री सनातन धर्म नेदरलैंड

संत श्री तुलसी दास


तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहुँ ओर।

बसीकरन एक मंत्र है परिहरू बचन कठोर।।
बिना तेज के पुरुष की अवशि अवज्ञा होय।

आगि बुझे ज्यों राख की आप छुवै सब कोय।।
तुलसी साथी विपत्ति के विद्या विनय विवेक ।

साहस सुकृति सुसत्यव्रत राम भरोसे एक।।
काम क्रोध मद लोभ की जौ लौं मन में खान।

तौ लौं पण्डित मूरखौं तुलसी एक समान।।
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह।

तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह।।
राम नाम मनि दीप धरू जीह देहरी द्वार।

तुलसी भीतर बाहरौ जौ चाहसि उजियार।।

hulasaI ko tulasaI


hulasaI ko tulasaI³tulasaI jayaMtI ko Avasar pr ivaSaoYa´
jaIvana–pircaya –– gaaosvaamaI tulasaI dasa jaI ko janma saMvat\ AaOr janma sqaana ko sambanQa maoM baD,a mat Baod hO. kuC laaogaaoM ka khnaa hO ik ]naka janma samvat\ 1554 maoM baaMda ijalao ko rajaa pur naamak sqaana gaaMva maoM huAa qaa. kuC ivaWanaaoM nao eTa ijalao ko saaoraoM naamak sqaana kao ]nakI janma BaUima maanaa hO.

tulasaI dasa jaI ko bacapna ka naama rama–baaolaa batayaa jaata hO. ]nako ipta ka naama Aa%maa rama AaOr maata ka naama hulasaI qaa. ABau> maUla naxa~ maoM janma laonao ko karNa ]nhoM maata–ipta nao %yaaga idyaa. svaamaI narhir dasa nao ]naka palana–paoYaNa ikyaa tqaa kaSaI ko SaoYa sanaatna naamak ivaWana nao ]nhoM vaod–Saas~¸ puraNa Aaid ka &ana krayaa. ]naka ivavaah dIna banQau pazk kI knyaa r%naavalaI sao huAa. vao p%naI sao bahut p`oma krto qao. ek baar vah ]nakI Anaupisqait maoM Apnao pIhr calaI ga[-. vao [sa ivarh kao na sah sako AaOr rat maoM hI ]sako Gar jaa phMucao. p%naI nao ]nhoM [sa–Aasai> ko ilayao bahut fTkara AaOr kha –
Aisqa carma yah doh mama¸ tamaoM eosaI p`Iit.haotI jaaoM khMU rama maih¸ haoMit na tao BavaBaIit.
p%naI kI baat ]nhoM cauBa ga[-. vao gaRhsqa jaIvana ko p`it pUNa- ivar> hao gayao AaOr p`yaaga¸ kaSaI¸ ica~kUT AyaaoQyaa Aaid tIqaao-M ka Ba`maNa krto rho.
Ant maoM vao kaSaI ko AsaI GaaT pr rhnao lagaoM AaOr vahIM saM• 1680 maoM ]naka inaQana hao gayaa. ]nakI maR%yau ko sambanQa maoM inamnailaiKt daoha p`isaw hO –
samvat\ saIlah saaO AsaI¸ AsaIgaMga ko tIr.EaavaNa Sau@laa saPtmaI¸ tulasaI tjyaao SarIr.
rcanaaeM – tulasaIdasa jaI Wara ilaKo gayao lagaBaga ek dja-na ga`nqa [sa samaya p`aPya hOM. ]namaoM rama cairt maanasa¸ kivatavalaI¸ ivanaya pi~ka¸ daohavalaI¸ pava-tI maMgala¸ rama lalaa nahCU¸ varbaO ramaayaNa Aaid p`mauK hOM.
rama cairt maanasa ihndI ka EaoYz mahakavya hO. [samaoM mayaa-da pu$Yaao%tma rama ko jaIvana–cair~ ka vaNa-na hOM.
kavyagat ivaSaoYatayaoM
vaNya- ivaYaya – tulasaI dasa jaI kI kivata ka ivaYaya Bagavaana rama ko jaIvana ka vaNa-na krnaa hO. rama–kqaa ko maaQyama sao ]nhaoMnao maanava jaIvana ko p`%yaok phlaU pr p`kaSa Dalaa hO. maata–ipta¸ pu~¸ Baa[-¸ svaamaI¸ saovak¸ pit–p%naI Aaid saBaI ko AadSa- vyavahar ka ]llaoK huAa hO. ivaYaya ko ivastar ko karNa tulasaI ka kavya jaIvana ko p`%yaok xao~ maoM ek iSaxak ka kaya- krta hO.
Bai>–Baavanaa –– tulasaI dasa jaI rama ko Ananya Ba> hOM. ]nakI Bai> dasya Baava kI hO. vao sadOva Apnao [YT dova ko sammauK ApnaI dInata ka p`dSa-na krto hOM –
rama saao baD,ao hO kaOna¸ maaoMsaaoM kaOna CaoTaoM¸rama saao Krao hO kaOna¸ maaoMsaaoM kaOna KaoTao.
]nakI Bai>–Baavanaa maoM caatk ko p`oma kI saI ek inaYzta hO –
ek Baraosaao ek bala¸ ek Aasa ivaSvaasa.ek rama–GanaSyaama iht¸ caatk tulasaIdasa.
manaaoBaavaaoM ka ica~Na – tulasaI dasa jaI kao maanava )dya ka pUNa- &ana qaa. vao manaaoBaavaaoM ko kuSala icatoro qao. QanauYa ya& ko samaya saIta kI mana:isqait ka ica~Na iktnaa sajaIva AaOr svaaBaaivak hO –
tna mana bacana maaor pnau saaQaa¸ rGaupit pd–saraoja icatu racaa.taO Bagavaana sakla ]r vaasaI¸ krihM maaoih rGauvar ko dasaI.
maanaisak vyaaparaoM ko samaana hI baa(–dRSyaaoM kao AMikt krnao maoM BaI tulasaI AiWtIya hO laMka dhna ka ek dRSya doiKyao –
laa[–laa[ Aaiga Baagao baala–jaala jahaM–thaM¸ laGau *vaO inabauik igair mao$ toM ibasaala Baao.kaOtukI kpIsa kUid knak kMgaUra caiZ,¸ ravana Bavana jaa[ zaZ,ao toih kala Baao.
BaaYaa – tulasaI dasa jaI nao Apnao kavya kI rcanaa ba`ja AaOr AvaQaI BaaYaa maoM kI hO. kRYNa gaItavalaI¸ kivatavalaI tqaa ivanaya pi~ka kI BaaYaa ba`jaBaaYaa hO. Anya kRityaaM AvaQaI BaaYaa maoM hOM. AvaQaI AaOr ba`ja daonaaoM hI BaaYaaAaoM pr tulasaI kao pUNa- AiQakar hO. ]nhaoMnao jaayasaI kI BaaMit ga`amaINa AvaQaI kao na Apnaakr saaihi%yak AvaQaI kao hI Apnaayaa.
tulasaI dasa jaI kI BaaYaa A%yaiQak pirmaaija-t evaM pirYkRt hOM. ]samaoM saMskRt ko SabdaoM kI AiQakta hO. khIM–khIM BaaojapurI tqaa baundolaKNDI BaaYaaAaoM ka p`Baava BaI ]sa pr idKa[- dota hO. ArbaI–farsaI ko SabdaoM kao BaI jahaM thaM sqaana imalaa hO.
tulasaI kI BaaYaa ivaYaya ko AnaukUla rhI hO. ]samaoM p`saad¸ maaQauya-¸ Aaoja Aaid saBaI gauNa ivaVmaana hOM.
SaOlaI – tulasaI dasa jaI nao Apnao samaya maoM p`cailat saBaI kavya–SaOilayaaoM kao Apnaayaa tqaa ]samaoM navaIna cama%kar AaOr saaOndya- kI saRiYT kI. ]nako kavya maoM mau#ya $p sao inamnailaiKt SaOilayaaM imalatI hOM :–
1 – daoha caaOpa[- kI p`banQaa%mak SaOlaI – rama cairt maanasa maoM.2 – daoha pwit kI mau>k SaOlaI – daohavalaI maoM.3 – kiva%t–savaOyaa AaOr CPpya pwit kI SaOlaI – kivatavalaI maoM.4 – Baavaukta pUNa- gaIt pwit kI SaOlaI – ivanaya pi~ka maoM.
[nako Aitir> ivavaah¸ saaohr Aaid ko gaItaoM maoM ga`amaINa SaOlaI BaI imalatI hO.
tulasaI kI saBaI SaOilayaaoM pr ]nako vyai>%va kI spYT Cap idKa[- dotI hO.
rsa – gaaosvaamaI jaI ko kavya maoM Saant¸ vaa%salya¸ hasya¸ Ad\Baut vaIr Aaid saBaI rsa payao jaato hOM. EaRMgaar rsa kao BaI sqaana imalaa hO¸ ikntu tulasaI mayaa-davaadI kiva qao [sailae ]nhaoMnao EaRMgaar ka vaNa-na baD,o mayaa-idt ZMga sao ikyaa hO. ]samaoM tinak BaI ]cCRMKlata nahIM Aanao dI hO. saIta ko saMyat AaOr mayaa-idt p`oma ka saundr ]dahrNa inamna pMi>yaaoM maoM doiKe –
rama kao $p inahart jaanakI¸ kMgana ko naga kI prCahIM.pato sabaO sauiQa BaUila ga[-¸ kr Tok rhIM pla Tart naahIM.
Cnd – tulasaI dasa jaI ko kavya p`mauK Cnd¸ daoha¸ caaOpa[-¸ kiva%t savaOyaa Aaid hOM.
AlaMkar – tulasaI kI kivata maoM AlaMkar svayaM Aa gayao hOM. ]nhoM p`ya%na pUva-k nahIM laayaa gayaa hO. gaaosvaamaI jaI nao SabdalaMkaraoM AaOr Aqaa-laMkaraoM¸ daonaaoM ka hI p`yaaoga ikyaa hO. Aqaa-laMkar BaavaaoM kao spYT krnao maoM sahayak hue hOM AaOr SabdalaMkaraoM nao BaaYaa kao inaKarnao ka kaya- ikyaa.
Avasar ko AnaukUla p`aya: saBaI AlaMkaraoM ka samaavaoSa huAa hO ikntu ]pmaa $pk¸ ]%p`oxaa AlaMkaraoM kI tulasaI ko kavya maoM AiQakta hO. $pk ka ek ]dahrNa laIijae –
]idt ]dya igair maMca pr rGauvar baala ptMga.ivaksao sant saraoja sama hrYao laaocana BaRMga..
saaih%ya maoM sqaana – maha kiva tulasaI dasa ka ihndI saaih%ya maoM vahIM sqaana hO jaao saMskRt–saaih%ya maoM vaalmaIik AaOr vaodvyaasa ka. Ad\Baut p`itBaa inaralaI kiva%va Sai> AaOr ]%kRYT Bai>–Baavanaa ko karNa vao ivaSaoYa mah%va ko AiQakarI hOM.
gaaOtma bauw ko baad Baart ko sabasao baD,o laaok naayak tulasaI hI qao. ]nhaoMnao ApnaI kavya klaa ko Wara inaraSa AaOr inaspnd Baart kI iSaiqala QamainayaaoM maoM AaSaa ka saMcaar kr ]sao jaIvana ka nayaa sambala idyaa.
inassandoh tulasaI dasa jaI ihndI ko Anaupma klaakar hOM. rama ko saaqa hI ]naka naama BaI Ajar–Amar rhogaa. hirAaOGa jaI ko SabdaoM maoM hma kh sakto hOM –
kivata krko tulasaI na lasao¸kivata lasaI pa tulasaI kI klaa.

माँ

त्याग है, तपस्या है, सेवा है,माँ, माँ फूँक से ठँडा किया हुआ कलेवा है,माँ, माँ अनुष्ठान है, साधना है, जीवन का हवन है,माँ, माँ जिंदगी के मोहल्ले में आत्मा का भवन है,माँ, माँ चूडी वाले हाथों के मजबूत कंधों का नाम है,माँ, माँ काशी है, काबा है और चारों धाम है,माँ, माँ चिंता है, याद है, हिचकी है,माँ, माँ बच्चे की चोट पर सिसकी है,माँ, माँ चुल्हा-धुँआ-रोटी और हाथों का छाला है,माँ, माँ ज़िंदगी की कड़वाहट में अमृत का प्याला है।

मंगलवार, 7 जुलाई 2009

चतुर्मास नीयम व्रत

आचार्य शंकर उपाध्याय गुरु पूर्णिमा तथा चतुर्मास के सम्बन्ध कहा कि वैदिक, बौद्ध व जैन परंपरा में चतुर्मास का बहुत महत्व है। इस दौरान आत्म कल्याण के साथ-साथ साधकों को साधना का अवसर भी मिलता है। वे गुरु पूर्णिमा की संध्या पर पेकेला स्थित आश्रम में श्रद्धालुओं को संबोधित कर रहे थे ।
आचार्य ने कहा कि वर्षा ऋतु में जीव-जंतुओं की व्यापक उत्पत्ति होती है। इस दौरान भ्रमण करने से जीव-जंतुओं की हिंसा होती है। इसलिए प्राचीन काल से ही साधु-संन्यासी चतुर्मास के दौरान स्थिरता का विधान अपनाते है। यह भी साधु जीवन की मर्यादा है।आचार्य ने कहा कि चतुर्मास के दौरान ज्ञान, ध्यान, जप, तप आदि के भाव से स्थिर करके गतिशील रहते है और अवस्थाएं उन्हे मोह-माया के जंजाल से मुक्त रखती है। उन्होंने कहा कि आधुनिक जीवन पद्धति से कीचड़ व बहुजीव की उत्पत्ति जैसी समस्याएं गौण हो गई है और मानव जीवन मस्ती, आनंद का जीवन, जीवन की व्याख्या तथा तनाव से लुप्त हो गए है। ऐसे में चतुर्मास के दौरान गुरुओं के मंगल प्रवचन पाप, ताप व संताप से मुक्ति दिलाते है। उन्होंने कहा कि यह समय मात्र सन्यासियों के लिए ही बल्कि गृहस्थ के लिए भी उपयोगी है।

श्री गुरु महिमा


गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागूँ पाय। बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो बताय।।
'गु' शब्द का अर्थ है अंधकार (अज्ञान) और 'रु' शब्द का अर्थ है प्रकाश ज्ञान। अज्ञान को नष्ट करने वाला जो ब्रह्म रूप प्रकाश है, वह गुरु है।वैसे तो हमारे जीवन में कई जाने-अनजाने गुरु होते हैं जिनमें हमारे माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है फिर शिक्षक और अन्य। लेकिन असल में गुरु का संबंध शिष्य से होता है न कि विद्यार्थी से। आश्रमों में गुरु-शिष्य परम्परा का निर्वाह होता रहा है।गुरु क्या है, कैसा है और कौन है यह जानने के लिए उनके शिष्यों को जानना जरूरी होता है और यह भी कि गुरु को जानने से शिष्यों को जाना जा सकता है, लेकिन ऐसा सिर्फ वही जान सकता है जो कि खुद गुरु है या शिष्य। गुरु वह है ‍जो जान-परखकर शिष्य को दीक्षा देता है और शिष्‍य भी वह है जो जान-परखकर गुरु बनाता है।
NDस्वामी रामकृष्ण परमहंस ने बहुत प्रयास किए कि नरेंद्र (विवेकानंद) मेरा शिष्य हो जाए क्योंकि रामकृष्ण परमहंस जानते थे कि यह वह व्यक्ति है जिसे सिर्फ जरा-सा धक्का दिया तो यह ध्यान और मोक्ष के मार्ग पर दौड़ने लगेगा।लेकिन स्वामी विवेकानंद बुद्धिवादी व्यक्ति थे और अपने विचारों के पक्के थे। उन्हें रामकृष्ण परमहंस एक ऐसे व्यक्ति नजर आते थे जो कोरी कल्पना में जीने वाले एक मूर्तिपूजक से ज्यादा कुछ नहीं। वे रामकृष्‍ण परमहंस की सिद्धियों को एक मदारी के चमत्कार से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। फिर भी वे परमहंस के चरणों में झुक गए क्योंकि अंतत: वे जान गए कि इस व्यक्ति में कुछ ऐसी बात है जो बाहर से देखने पर नजर नहीं आती।तब यह जानना जरूरी है कि आखिर में हम जिसे गुरु बना रहे हैं तो क्या उसके विचारों से, चमत्कारों से या कि उसके आसपास भक्तों की भीड़ से प्रभावित होकर उसे गुरु बना रहे हैं, यदि ऐसा है तो आप सही मार्ग पर नहीं हैं।गुरु और शिष्य की परम्परा के ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जिससे यह जाहिर होता है कि गुरु को शिष्य और शिष्य को गुरु बनाने में कितनी जद्दोजहद का सामना करना पड़ा।

पंडित शंकर उपाध्याय